भगवान बुद्ध ने धर्म सिखाया, बौद्धधर्म नहीं

एस एन गोयन्का   मंगल हो  भलं हो कल्याण हो Vipassna
श्री सत्य नारायण गोयन्का 



प्रस्तुत लेख श्रद्धेय श्री सत्य नारायण गोयन्का जी द्वारा लिखा गया है आपने 1969 में भारत में विपश्यना सिखाना शुरू किया और पूरे विश्व में विपश्यना को एक आन्दोलन बना दिया. यह लेख धर्म की सच्ची परिभाषा बताता है धर्मं शुद्ध हो तो ही धर्मं होता है.

शत - शत नमन




 लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व जब मैं अमेरिका में धर्म सिखाने के लिए गया तब किसी ने मेरा इंटरव्यू लिया और पूछा कि मैंने अब तक कितने लोगों को बौद्ध बनाया हैं ?

     मैंने उत्तर दिया -- एक को भी नहीं ।

     इस पर पूछा गया -- क्या आप बौद्धधर्म नहीं सिखाते ?

    --बिल्कुल नहीं ।

    --तो क्या आप बौद्ध नहीं हैं ?

    --बिल्कुल नहीं ।

   इन प्रश्नों के उत्तर सुनकर प्रश्नकर्ता चौंका , पर मैंने उसका समाधान करते हुए बताए कि भगवान बुद्ध ने एक व्यक्ति को भी बौद्ध नहीं बनाया । न उन्होंने बौद्धधर्म सिखाया । मैं उनका वास्तविक अनुगामी हूं तो मैं कैसे किसी को बौद्ध बना सकता हूं और कैसे अपने आपको बौद्ध कह सकता हूं ?
भगवान बुद्ध ने लोगों को धर्म सिखाया और धार्मिक बनाया ।मैं भी उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए लोगों को धर्म सिखाता हूं ।

    मेरी उपरोक्त प्रश्नोत्तरी की सूचना जब मेरी सलाह मेरी जन्मभूमि बरमा पहुँची तब वहां के प्रमुख भिक्षुओं के मन में मेरे प्रति दुर्भावना जागी । उनका  कहना था कि हमारे यहां से बौद्धधर्म सीख कर गया और अब अपना ही कोई धर्म सिखाता हैं ।

   उनकी इस आलोचना से मैं पीड़ित हुआ, परंतु क्या करता ?
 मरे लिए बरमा जाकर उन्हें समझाने पर प्रतिबंध लगा हुआ था । यह इस कारण हुआ कि जब मैं बर्मा से भारत धर्म सिखाने के लिए आया , तब बरमी नागरिक होने के कारण बरमी पासपोर्ट लेकर ही आया । इस पासपोर्ट पर सरकार ने केवल भारत का ही एंडोर्समेंट दिया था , जिसका मतलब था कि भारत छोड़कर और किसी देश में यात्रा नहीं कर सकता था । मैंने इस नियम का कड़ाई से पालन किया । मैं पड़ोसी देश नेपाल भी नहीं गया , जहां भारतीय होने के नाते बिना पासपोर्ट के भी जा सकता था ।

    पुरातन भविष्यवाणी थीं कि भगवान बुद्ध के प्रथम शासन के बाद उनकी कल्याणी शिक्षा भारत लौटोगी  और वहां के लोग इसे सहर्ष स्वीकार करेंगे । तदनंतर यह सारे विश्व में फैलेगी । मेरे गुरुदेव   सयाजी  ऊ  बा  खिन की यही प्रबल धर्मकामना थीं कि मैं भारत में विपश्यना सिखाने के बाद, विश्व के अन्य देशों में जाकर इसका प्रचार - प्रसार करूं । लेकिन पासपोर्ट की इस बंदिश के कारण मैं भारत छोड़कर और कहीं भी नहीं जा सकता था ।

    मैंने स्थानीय बरमी दूतावास से अपील की कि मुझ पर से यह प्रतिबंध हटा लिया जाय, लेकिन वे असमर्थ थे । ऐसा नहीं कर पा रहे थे इसलिए मेरा आवेदन - पत्र बरमी सरकार को रंगून भेजा । वहां बर्मा की सैनिक सरकार का अवकाश प्राप्त विदेशमंत्री ऊ ती हान मेरा घनिष्ठ मित्र था और तत्कालीन प्रधानमंत्री कर्नल  मौं  मौं  भी  मेरा मित्र था । मैं उसके साथ दो बार सरकारी डेलीगेशन में विदेश गया था । वह परिचित ही नहीं, बल्कि मेरा घनिष्ठ मित्र था । लेकिन सरकारी नियमों के अनुसार चाहते हुए भी मेरे पासपोर्ट पर अन्य देशों का  एंडोर्समेंट न दे सका । अतः दोनों ने मुझे सुझाव दिया कि मैं बरमा के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष जनरल नेविन को सीधे आवेदन करूं तो वे दोनों इसका समर्थन कर देंगे और काम बन जाएगा । परंतु यह प्रयास भी असफल ही रहा ।

    पूज्य गुरुदेव के आदेश के अनुसार मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि भारत में दस  वर्ष तक धर्मसेवा कर लेने के  बाद मैं विश्व के अन्य देशों की धर्मचारिका के लिए अवश्य निकल पडूंगा ।परंतु इसे संभव होते न देख कर मेरे लिए यही उपाय रह गया था कि मैं अपनी नागरिकता बदल कर भारतीय नागरिकता ग्रहण कर लूं, जिससे कि मुझे भारत सरकार द्वारा भारतीय पासपोर्ट प्राप्त हो जाय और मैं कहीं भी धर्मचारिका के लिए जा सकूं । मैंने यही किया ।

     इस लेकर एक और कठिनाई खड़ी हुई । उन दिनों बरमी सरकार का एक नियम यह था कि यदि कोई बरमी नागरिक बाहर जाकर अपनी नागरिकता बदल लें तो वह गद्दार माना जायगा । उसे कभी भी देश में प्रवेश करने के  लिए एंट्री - वीसा नहीं मिलेगा ।यदि वह ट्रांजिट वीसा से आये तो भी एयरपोर्ट पर वह अपने विमान पर ही बैठा रहेगा । उसे नीचे उतरने नहीं दिया जायगा ।

    यह अत्यंत दुःखद स्थिति थी ।मैं अपनी जन्मभूमि और धर्मभूमी प्रवेश तक नहीं कर सकता था । स्थिति और अधिक दुःखद इस कारण हो  गयी कि वहां के प्रमुख भिक्षुओं ने मेरा बहुत कड़ा विरोध करना शुरू कर दिया कि अब न मैं बौद्ध हूं और न  बौद्धिधर्म की शिक्षा देता हूं । उनकी शंकाओ  का  समाधान करने के लिए मेरे पास  बहुत  सामग्री  थी परंतु  मैं  असमर्थ  था  ।  क्योंकि  जब  उस  देश  में  जा  ही  नहीं  सकता  तब  पत्राचार  द्वारा  इन  प्रबल शंकाओं का समाधान कैसे करता  ?

     सौभाग्यवश बर्मा  का. राष्ट्राध्यक्ष  डॉ.  मौं   मौं   अवकाश  प्राप्त करके  भारत आया । यहां के बरमी  दूतावास  में  उसकी  पुत्री नौकरी  कर  रही  थी  । उसने  अपने  पिता को  बताया कि बरमा  का  कोई  गोयन्का  यहां  और  विश्व  में  धर्मप्रसारण  का  बहुत  सफलतापूर्वक  कार्य  कर रहा हैं  लेकिन  उसे  वह  अपना कोई अलग  धर्म  बताता  हैं  ।  डॉ.  मौं  मौं  ने  रंगून  रहते  हुए  मेरी  कड़वी  निंदा  सुन  रखी  थी  । अतः  वह  अपनी. बेटी  और  पत्नी  को  लेकर  मुझसे  मिलने  जयपुर  चला  आया  । जिस बात  को  लेकर  म्यांमा  में  मेरी  निंदा  हो  रही  है  उस  पर  जब  उसने  बातचीत  शुरू  की  तब  मैंने  कहा  कि  मैं  बरमा  का  पुत्र  हूं ।
वहीं मुझे  भगवान  का  धर्म मिला  । उस सच्चाई  को  भुला  कर  बर्मा  के  साथ  गद्दारी  कैसे  कर सकता  हूं ?  इस विषय पर  अधिक बातचीत  करने  के  पहले  मैंने  उससे  निवेदन  किया  कि  क्यों  न  तुम  तीनों  इस  शिविर  में  बैठ  जाओ  ।  स्वयं  जांच  कर  देखो  और  मुझे  मेरी  गलती  बताओ  । जो  सचमुच  गलत  होगा,  उसे  सुधारने  में मुझे  जरा  भी   हिचक  नहीं  होगी  ।  संयोग  से  उसी  दिन  जयपुर  का  शिविर  आरंभ हो  रहा   था  ।  वे  तीनों  उसमें   बैठ  गये  ।

      डॉ.  मौं  मौं   पालि   और भगवान  की  वाणी का  बहुत  बड़ा  विद्वान  था  ।  उसे  सच्चाई  समझने  में  देर  नहीं  लगी ।  शिविर  समापन  पर  जब  वह  मुझसे  मिला  तब  उसकी  आँखों  से  हर्ष की  अश्रुधाराएं  बह  रही थीं  ।  उसने  कहा  मैं  अपने  आपको   बुद्ध   की   शिक्षा  बहुत  बड़ा  विद्वान  मानता  था  परंतु  अब  तुम्हारे  शिविर   में  बैठने  पर   ही   समझ  पाया  कि  भगवान  की  सही  शिक्षा  क्या  हैं ! अतः बर्मा  लौट  कर  वह  देश  कैबिनेट  से  मिला । राष्ट्राध्यक्ष  पद  से  त्याग  पत्र  देने  पर  भी  उसका  वहां  बहुत  सम्मान  था  ।  उसने   कैबिनेट  के  सदस्यों  को  समझाया  कि  गोयन्का  जो  कर  रहा  हैं  वह  बिल्कुल  सही है । अपने  भिक्षु ही  भ्रांत  हैं  ।  अतः  उसे  बुला  कर  भिक्षुओं  से  बातचीत  करायी  जाय ।

     उन  दिनों  ऑस्ट्रेलिया  में  सिडनी  के  धम्मभूमि  विपश्यना  केंद्र  पर  मेरा  शिविर  चल  रहा  था  । यकायक  आस्ट्रेलिया स्थित  बरमा  के  राजदूत  का  मेरे  नाम  फोन  आया  । उसने  कहा  कि  सयाजी  ऊ  गोयन्का ! आप  आस्ट्रेलिया से सीधे  भारत  न  लौटें । पहले बरमा  रुकें  और  तब  भारत  जायें  । मैंने  कहा मैं  बरमा  कैसे  जा  सकूंगा ? मुझे  तो  वहां  के  लिए विसा  ही  नहीं. मिल  सकता । तब  उसने  हँसते  हुए  कहा कि आप  क्यों  चिंता  करते  हो  ?  वीसा तो  मैं ही दूंगा । अब  आपको सामान्य वीसा  ही  नहीं , बल्कि  ससम्मान  राजकीय  अतिथि  का  वीसा दिया  जायगा  । मैं  चौंका,  यह  सब  क्यों और  कैसे  हो  रहा  हैं ?  पुरंतु मन  में एक  आह्लाद  भी हुआ  कि मैं  अपनी  मातृभूमि  और  धर्मभूमि जा सकूंगा  ।  

    राजकीय  अतिथि  वीसा  के  साथ  रंगून. पहुँचा  तो   धूमधाम  के  साथ  मेरा  स्वागत  किया  गया  और  मुझे  शहर  में  सरकारी  अतिथिगृह ले गये ,  जहां  मेरे  ठहरने  का  प्रबंध किया  हुआ  था  । परंतु  मैं  इसके लिए  तैयार  नहीं  हुआ  । मैंने  कहा  मेरा पुत्र को श्वे (बनवारी) यहीं  रहता  हैं  ।  मैं. उसके घर  पर ही  टिकूंगा  । उन्होंने  स्वीकार  किया  । अपने पुत्र के घर टिकने के बाद  जब  डॉ.  मौं  मौं  मुझसे  मिलने  आया  तब  मैंने  पूछा  कि यह सब  क्यों  हो  रहा  हैं  ? उसने  विनम्रभाव  से बताया कि  हमारे यहां  के  प्रमुख  भिक्षु  तुम्हारी  कड़ी आलोचना  कर  रहे  हैं । आपने जैसा मेरा  समाधान  किया  वैसे ही मुझे विश्वास  हैं  कि  इनका  भी  कर  पाओगे । इसीलिए  कल यहां के प्रमुख विद्वान  भिक्षुओं की  एक  सभा  बुलायी  गयी  हैं  जिसे  आप  द्वारा  संबोधित किया  जायगा  और  बताया  जायगा कि  आप  बौद्धधर्म  क्यों  नहीं  सिखा रहे  हैं । यह सुन  कर मैं प्रसन्न हुआ , क्योंकि  मैं भी यही   चाहता  था  । बरमा  के  लोगों  में मेरे  प्रति  जो  गलत  धारणा  उत्पन्न हुई हैं, वह दूर कर दी जाय ।

     जब मैंने उन्हें कहा कि भगवान की मूल वाणी में उनकी शिक्षा  को     धर्म     ही कहा गया हैं, कहीं    बौद्धधर्म    नहीं । धर्म  धारण   करने  वालों को धम्मिक  
 (धार्मिक )  , धम्मट्ठ (धर्म - स्थित ) , धम्मचारी , धम्मजीवी, धम्मत्र्त्रु ( धर्मज्ञ), धम्मधर, धम्मवादी आदि  ही कहा गया हैं ।
भगवान की शिक्षा को  बौद्धधर्म  और  उनके  अनुयायियों  को  बौद्ध  कहना बाद  में  जोड़ा गया  और  हमने  नासमझी से  इसे  स्वीकार कर लिया । उससे  भगवान  बुद्ध  की  महान  शिक्षा हल्की  बना  दी  गयी  ।भगवान बुद्ध  की  शिक्षा सचमुच  महान  हैं , क्योंकि   धर्म   शब्द  सार्वजनीन  हैं, सार्वदेशिक हैं , सार्वकालिक हैं । परंतु जब उसे बौद्धधर्म कहा गया तब वह संप्रदायवादी हो गया । वह संकुचित होकर केवल एक संप्रदाय तक  सीमित रह गया । हमने नितांत  नासमझी से ही इस 
अप्पमाणो  धम्मो को पमाणवन्तो बना दिया । असीम को ससीम कर दिया । महान को लघु बना दिया ।  

        मेरे प्रवचन के बाद भिक्षुओं ने कहा कि हमें  दो  दिन  का  समय  दिजिये । हम देखेंगे कि क्या सचमुच   बुद्धवाणी   में. बौद्धधर्म  और  बौद्ध   शब्द   हैं कि  नहीं  ।  सभा  कि  अध्यक्षता मेरा  धर्ममित्र  और धर्मभाई मांडले  यूनिवर्सिटी  का  अवकाशप्राप्त  वाइसचांसलर डॉ. ऊ को  ले  कर  रहा  था । उसने  एक नया प्रस्ताव लाते हुए कहा कि  बरमी  भाषा  में  धम्म  के  लिए  तया  (तरा ) शब्द  हैं । उसमें कोई  परिवर्तन  नहीं  किया  गया । आज भी  हम कहते  हैं ---चलो ,  अमुक भिक्षु का प्रवचन हैं, चल कर उससे तया सुनें । अथवा चलो तया ( साधना ) में बैठें । 
परंतु कभी नहीं कहते कि बौद्धतया  चलें  या  बौद्धतया की साधना में बैठें । सचमुच बुद्ध ने बौद्ध शब्द का प्रयोग ही नहीं किया । यह   अंग्रेजी  राज्य  में हुआ ,  जब  धर्म  बौद्धिज्म  और धर्म  धारण  करने  वालों  को  बुद्धिस्ट  कहने  लगे  ।   इस व्याख्या  से  सभी  भिक्षु  बहुत प्रसन्न  हुए ।  सब  के  मन का  संदेह  दूर  हुआ । बर्मी सरकार  ने  ' महासद्धम्मजोतिद्धज ' अलंकरण से मुझे विभूषित किया ।

       मेरे  विरुद्ध  ऐसा ही झूठा आरोप श्रीलंका  के .विद्वान  भिक्षुओं ने  लगाया  था कि  मैं बौद्धधर्म  न  सिखाकर बुद्ध की शिक्षा  को  बिगाड़ रहा हूं । सौभाग्य से  न्यूयॉर्क  में  इसी विषय  पर  मेरे  दो  प्रवचन हुए, 
जिन्हें सुन कर  अमेरिका में  श्रीलंका  का  राजदूत  बहुत  प्रभावित हुआ और उसे अपने  विद्वान  भिक्षुओं  की गलती  स्पष्टतया  समझ में आयी । उसने अपने देश के राष्ट्रपति श्री महेन्द्र राजपक्षे को सुचना दी कि वे मुझे राज्य  - अतिथि के रूप में बुलायें और भिक्षुओं की शंकाओं का समाधान करायें ।

      वहां भी यही हुआ । मेरी व्याख्या से भिक्षुगण भावविभोर हो उठे और उनको यह भूल समझ में आयी कि  भगवान   के द्वारा सिखाये गये धर्म को बौद्धधर्म  कह कर हमने उसे एक सांप्रदाय में बांध दिया । जबकि भगवान  जातिवाद  के  ही. नहीं, संप्रदायवाद  के  भी  बड़े विरोधी. थे । मेरे वहां तीन प्रवचन हुए जिसमें  वास्तविकता  एकदम स्पष्ट हो गयी । वहां के राष्ट्राध्यक्ष श्री महेन्द्र राजपक्षे  ने  मुझे जिनसासनसोभन  पटिपत्तिधज नामक अलंकरण से सम्मानित किया और वहां के  प्रमुख भिक्षु संघ ने परियत्ति  विसारद  की  उपाधि से सम्मानित किया । 

     महत्व इन उपाधियों का नहीं, बल्कि इस बात हैं कि वहां के शीर्षस्थ विद्वानों ने भी यह सत्य स्वीकार किया कि बुद्ध ने धर्म सिखाया , न  कि  बौद्धिधर्म । लोगों को धार्मिक बनाया , न  कि बौद्ध ।

        भारत लौटने पर मैंने अपने शोधकर्ता शिष्यों को यह देखने के लिए लगाया कि बुद्धवाणी में कहीं बौद्ध शब्द तो नहीं है । उन्होंने अनुसंधान करके समग्र पालि साहित्य में, यानी, केवल तिपिटक में ही नहीं, बल्कि उनकी अर्थकथाएं , टीकाएं और अनुटीकाएं भी सीडी - रोम में निवेषित कर रखी थीं । उनका अनुसंधान किया गया तो पाया कि सारे पालि  वाड्मय में धम्म से जुड़े हुए १७,०७३ शब्द हैं परंतु किसी एक के साथ भी बौद्ध शब्द नहीं जुड़ा है ।

     स्पष्ट है भगवान बुद्ध ने धर्म सिखाया  न  कि  बौद्धधर्म ; लोगों को  धार्मिक  बनाया  न  कि  बौद्ध । हमने धर्म शब्द के साथ बौद्ध शब्द जोड़ कर कितनी बड़ी भूल की । अब उसे सुधारें । 

     हमारे लिए बुद्ध, धम्म और संघ ही त्रिरत्न हैं, न  कि बौद्धधर्म और  बौद्धसंघ । हम बुद्ध, धम्म और संघ की शरण जाते हैं, न कि बौद्धधर्म और बौद्ध संघ की । हम स्पष्ट ही कहते हैं -- नत्थि मे सरणं अत्र्त्रं, धम्मो मे सरणं वरं , यानी , शरण धर्म की हैं, न कि बौद्धधर्म की । इसके बाद जब प्रज्ञा  का  काम  सिखाया जाता है, तब उसमें शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को साक्षीभाव से देखना सिखाया जाता है । ये संवेदनाए सब को होती हैं । किसी एक संप्रदाय के लोगों तक सीमित नहीं होतीं । अतः शील , समाधि, प्रज्ञा के धर्म पर किसी एक संप्रदाय की मनोपोली नहीं हेती ।

   भगवान बुद्ध ने जो सार्वजनीन धर्म सिखाया उसे अरियो अट् ठडि्गको  मग्गो कहा  यानी शील, समाधि, और प्रज्ञा का आठ  अंग वाला मार्ग जो किसी भी  अनार्य को  आर्य बना दे । अधार्मिक को धार्मिक बना दे   ।


                 एस एन गोयन्का

  मंगल हो  भलं हो कल्याण हो

🌷 विपश्यना साधना परिचय 🌷


विपश्यना (Vipassana) भारत की एक अत्यंत पुरातन ध्यान-विधि है। 

इसे आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला था। 

विपश्यना का अभिप्राय है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने नैसर्गिक श्वास के निरीक्षण से आरंभ करके अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होने वाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्त-विशोधन और सद्गुण-वर्धन का यह अभ्यास (Dhamma), साधक को किसी सांप्रदायिक आलंबन से बॅंधने नहीं देता। 

इसीलिए यह साधना सर्वग्राह्य है, बिना किसी भेदभाव के सबके लिए समानरूप से कल्याणकारिणी है।

1) विपश्यना क्या नहीं है:

विपश्यना अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।यह साधना बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।यह छुटी मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदानप्रदान के लिए नहीं है।यह रोजमर्रा के जीवन के ताणतणाव से पलायन की साधना नहीं है।

2)  विपश्यना क्या है:

यह दुक्खमुक्ति की साधना है।

यह मनको निर्मल करने की ऐसी विधि है जिससे साधक जीवन के चढाव-उतारों का सामना शांतपूर्ण एवं संतुलित रहकर कर सकता है। यह जीवन जीने की कला है जिससे की साधक एक स्वस्थ समाज के निर्माण में मददगार होता है।

विपश्यना साधना का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य विकारों से संपूर्ण मुक्ति है। उसका उद्देश्य केवल शारीरिक व्याधियों का निर्मूलन नही है। लेकिन चित्तशुद्धि के कारण कई सायकोसोमॅटीक बीमारिया दूर होती है। 

वस्तुत: विपश्यना दुक्ख के तीन मूल कारणों को दूर करती है—राग, द्वेष एवं अविद्या। 

यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का साक्षात्कार कर सकता है।

चाहे विपश्यना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई सांप्रदायिक तत्त्व नहीं है और किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है। 

विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं, जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नहीं आती। 

हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। 

चूंकि रोग सार्वजनीन है, अत: इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए।