भगवान बुद्ध ने धर्म सिखाया, बौद्धधर्म नहीं

एस एन गोयन्का   मंगल हो  भलं हो कल्याण हो Vipassna
श्री सत्य नारायण गोयन्का 



प्रस्तुत लेख श्रद्धेय श्री सत्य नारायण गोयन्का जी द्वारा लिखा गया है आपने 1969 में भारत में विपश्यना सिखाना शुरू किया और पूरे विश्व में विपश्यना को एक आन्दोलन बना दिया. यह लेख धर्म की सच्ची परिभाषा बताता है धर्मं शुद्ध हो तो ही धर्मं होता है.

शत - शत नमन




 लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व जब मैं अमेरिका में धर्म सिखाने के लिए गया तब किसी ने मेरा इंटरव्यू लिया और पूछा कि मैंने अब तक कितने लोगों को बौद्ध बनाया हैं ?

     मैंने उत्तर दिया -- एक को भी नहीं ।

     इस पर पूछा गया -- क्या आप बौद्धधर्म नहीं सिखाते ?

    --बिल्कुल नहीं ।

    --तो क्या आप बौद्ध नहीं हैं ?

    --बिल्कुल नहीं ।

   इन प्रश्नों के उत्तर सुनकर प्रश्नकर्ता चौंका , पर मैंने उसका समाधान करते हुए बताए कि भगवान बुद्ध ने एक व्यक्ति को भी बौद्ध नहीं बनाया । न उन्होंने बौद्धधर्म सिखाया । मैं उनका वास्तविक अनुगामी हूं तो मैं कैसे किसी को बौद्ध बना सकता हूं और कैसे अपने आपको बौद्ध कह सकता हूं ?
भगवान बुद्ध ने लोगों को धर्म सिखाया और धार्मिक बनाया ।मैं भी उनके चरणचिह्नों पर चलते हुए लोगों को धर्म सिखाता हूं ।

    मेरी उपरोक्त प्रश्नोत्तरी की सूचना जब मेरी सलाह मेरी जन्मभूमि बरमा पहुँची तब वहां के प्रमुख भिक्षुओं के मन में मेरे प्रति दुर्भावना जागी । उनका  कहना था कि हमारे यहां से बौद्धधर्म सीख कर गया और अब अपना ही कोई धर्म सिखाता हैं ।

   उनकी इस आलोचना से मैं पीड़ित हुआ, परंतु क्या करता ?
 मरे लिए बरमा जाकर उन्हें समझाने पर प्रतिबंध लगा हुआ था । यह इस कारण हुआ कि जब मैं बर्मा से भारत धर्म सिखाने के लिए आया , तब बरमी नागरिक होने के कारण बरमी पासपोर्ट लेकर ही आया । इस पासपोर्ट पर सरकार ने केवल भारत का ही एंडोर्समेंट दिया था , जिसका मतलब था कि भारत छोड़कर और किसी देश में यात्रा नहीं कर सकता था । मैंने इस नियम का कड़ाई से पालन किया । मैं पड़ोसी देश नेपाल भी नहीं गया , जहां भारतीय होने के नाते बिना पासपोर्ट के भी जा सकता था ।

    पुरातन भविष्यवाणी थीं कि भगवान बुद्ध के प्रथम शासन के बाद उनकी कल्याणी शिक्षा भारत लौटोगी  और वहां के लोग इसे सहर्ष स्वीकार करेंगे । तदनंतर यह सारे विश्व में फैलेगी । मेरे गुरुदेव   सयाजी  ऊ  बा  खिन की यही प्रबल धर्मकामना थीं कि मैं भारत में विपश्यना सिखाने के बाद, विश्व के अन्य देशों में जाकर इसका प्रचार - प्रसार करूं । लेकिन पासपोर्ट की इस बंदिश के कारण मैं भारत छोड़कर और कहीं भी नहीं जा सकता था ।

    मैंने स्थानीय बरमी दूतावास से अपील की कि मुझ पर से यह प्रतिबंध हटा लिया जाय, लेकिन वे असमर्थ थे । ऐसा नहीं कर पा रहे थे इसलिए मेरा आवेदन - पत्र बरमी सरकार को रंगून भेजा । वहां बर्मा की सैनिक सरकार का अवकाश प्राप्त विदेशमंत्री ऊ ती हान मेरा घनिष्ठ मित्र था और तत्कालीन प्रधानमंत्री कर्नल  मौं  मौं  भी  मेरा मित्र था । मैं उसके साथ दो बार सरकारी डेलीगेशन में विदेश गया था । वह परिचित ही नहीं, बल्कि मेरा घनिष्ठ मित्र था । लेकिन सरकारी नियमों के अनुसार चाहते हुए भी मेरे पासपोर्ट पर अन्य देशों का  एंडोर्समेंट न दे सका । अतः दोनों ने मुझे सुझाव दिया कि मैं बरमा के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष जनरल नेविन को सीधे आवेदन करूं तो वे दोनों इसका समर्थन कर देंगे और काम बन जाएगा । परंतु यह प्रयास भी असफल ही रहा ।

    पूज्य गुरुदेव के आदेश के अनुसार मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि भारत में दस  वर्ष तक धर्मसेवा कर लेने के  बाद मैं विश्व के अन्य देशों की धर्मचारिका के लिए अवश्य निकल पडूंगा ।परंतु इसे संभव होते न देख कर मेरे लिए यही उपाय रह गया था कि मैं अपनी नागरिकता बदल कर भारतीय नागरिकता ग्रहण कर लूं, जिससे कि मुझे भारत सरकार द्वारा भारतीय पासपोर्ट प्राप्त हो जाय और मैं कहीं भी धर्मचारिका के लिए जा सकूं । मैंने यही किया ।

     इस लेकर एक और कठिनाई खड़ी हुई । उन दिनों बरमी सरकार का एक नियम यह था कि यदि कोई बरमी नागरिक बाहर जाकर अपनी नागरिकता बदल लें तो वह गद्दार माना जायगा । उसे कभी भी देश में प्रवेश करने के  लिए एंट्री - वीसा नहीं मिलेगा ।यदि वह ट्रांजिट वीसा से आये तो भी एयरपोर्ट पर वह अपने विमान पर ही बैठा रहेगा । उसे नीचे उतरने नहीं दिया जायगा ।

    यह अत्यंत दुःखद स्थिति थी ।मैं अपनी जन्मभूमि और धर्मभूमी प्रवेश तक नहीं कर सकता था । स्थिति और अधिक दुःखद इस कारण हो  गयी कि वहां के प्रमुख भिक्षुओं ने मेरा बहुत कड़ा विरोध करना शुरू कर दिया कि अब न मैं बौद्ध हूं और न  बौद्धिधर्म की शिक्षा देता हूं । उनकी शंकाओ  का  समाधान करने के लिए मेरे पास  बहुत  सामग्री  थी परंतु  मैं  असमर्थ  था  ।  क्योंकि  जब  उस  देश  में  जा  ही  नहीं  सकता  तब  पत्राचार  द्वारा  इन  प्रबल शंकाओं का समाधान कैसे करता  ?

     सौभाग्यवश बर्मा  का. राष्ट्राध्यक्ष  डॉ.  मौं   मौं   अवकाश  प्राप्त करके  भारत आया । यहां के बरमी  दूतावास  में  उसकी  पुत्री नौकरी  कर  रही  थी  । उसने  अपने  पिता को  बताया कि बरमा  का  कोई  गोयन्का  यहां  और  विश्व  में  धर्मप्रसारण  का  बहुत  सफलतापूर्वक  कार्य  कर रहा हैं  लेकिन  उसे  वह  अपना कोई अलग  धर्म  बताता  हैं  ।  डॉ.  मौं  मौं  ने  रंगून  रहते  हुए  मेरी  कड़वी  निंदा  सुन  रखी  थी  । अतः  वह  अपनी. बेटी  और  पत्नी  को  लेकर  मुझसे  मिलने  जयपुर  चला  आया  । जिस बात  को  लेकर  म्यांमा  में  मेरी  निंदा  हो  रही  है  उस  पर  जब  उसने  बातचीत  शुरू  की  तब  मैंने  कहा  कि  मैं  बरमा  का  पुत्र  हूं ।
वहीं मुझे  भगवान  का  धर्म मिला  । उस सच्चाई  को  भुला  कर  बर्मा  के  साथ  गद्दारी  कैसे  कर सकता  हूं ?  इस विषय पर  अधिक बातचीत  करने  के  पहले  मैंने  उससे  निवेदन  किया  कि  क्यों  न  तुम  तीनों  इस  शिविर  में  बैठ  जाओ  ।  स्वयं  जांच  कर  देखो  और  मुझे  मेरी  गलती  बताओ  । जो  सचमुच  गलत  होगा,  उसे  सुधारने  में मुझे  जरा  भी   हिचक  नहीं  होगी  ।  संयोग  से  उसी  दिन  जयपुर  का  शिविर  आरंभ हो  रहा   था  ।  वे  तीनों  उसमें   बैठ  गये  ।

      डॉ.  मौं  मौं   पालि   और भगवान  की  वाणी का  बहुत  बड़ा  विद्वान  था  ।  उसे  सच्चाई  समझने  में  देर  नहीं  लगी ।  शिविर  समापन  पर  जब  वह  मुझसे  मिला  तब  उसकी  आँखों  से  हर्ष की  अश्रुधाराएं  बह  रही थीं  ।  उसने  कहा  मैं  अपने  आपको   बुद्ध   की   शिक्षा  बहुत  बड़ा  विद्वान  मानता  था  परंतु  अब  तुम्हारे  शिविर   में  बैठने  पर   ही   समझ  पाया  कि  भगवान  की  सही  शिक्षा  क्या  हैं ! अतः बर्मा  लौट  कर  वह  देश  कैबिनेट  से  मिला । राष्ट्राध्यक्ष  पद  से  त्याग  पत्र  देने  पर  भी  उसका  वहां  बहुत  सम्मान  था  ।  उसने   कैबिनेट  के  सदस्यों  को  समझाया  कि  गोयन्का  जो  कर  रहा  हैं  वह  बिल्कुल  सही है । अपने  भिक्षु ही  भ्रांत  हैं  ।  अतः  उसे  बुला  कर  भिक्षुओं  से  बातचीत  करायी  जाय ।

     उन  दिनों  ऑस्ट्रेलिया  में  सिडनी  के  धम्मभूमि  विपश्यना  केंद्र  पर  मेरा  शिविर  चल  रहा  था  । यकायक  आस्ट्रेलिया स्थित  बरमा  के  राजदूत  का  मेरे  नाम  फोन  आया  । उसने  कहा  कि  सयाजी  ऊ  गोयन्का ! आप  आस्ट्रेलिया से सीधे  भारत  न  लौटें । पहले बरमा  रुकें  और  तब  भारत  जायें  । मैंने  कहा मैं  बरमा  कैसे  जा  सकूंगा ? मुझे  तो  वहां  के  लिए विसा  ही  नहीं. मिल  सकता । तब  उसने  हँसते  हुए  कहा कि आप  क्यों  चिंता  करते  हो  ?  वीसा तो  मैं ही दूंगा । अब  आपको सामान्य वीसा  ही  नहीं , बल्कि  ससम्मान  राजकीय  अतिथि  का  वीसा दिया  जायगा  । मैं  चौंका,  यह  सब  क्यों और  कैसे  हो  रहा  हैं ?  पुरंतु मन  में एक  आह्लाद  भी हुआ  कि मैं  अपनी  मातृभूमि  और  धर्मभूमि जा सकूंगा  ।  

    राजकीय  अतिथि  वीसा  के  साथ  रंगून. पहुँचा  तो   धूमधाम  के  साथ  मेरा  स्वागत  किया  गया  और  मुझे  शहर  में  सरकारी  अतिथिगृह ले गये ,  जहां  मेरे  ठहरने  का  प्रबंध किया  हुआ  था  । परंतु  मैं  इसके लिए  तैयार  नहीं  हुआ  । मैंने  कहा  मेरा पुत्र को श्वे (बनवारी) यहीं  रहता  हैं  ।  मैं. उसके घर  पर ही  टिकूंगा  । उन्होंने  स्वीकार  किया  । अपने पुत्र के घर टिकने के बाद  जब  डॉ.  मौं  मौं  मुझसे  मिलने  आया  तब  मैंने  पूछा  कि यह सब  क्यों  हो  रहा  हैं  ? उसने  विनम्रभाव  से बताया कि  हमारे यहां  के  प्रमुख  भिक्षु  तुम्हारी  कड़ी आलोचना  कर  रहे  हैं । आपने जैसा मेरा  समाधान  किया  वैसे ही मुझे विश्वास  हैं  कि  इनका  भी  कर  पाओगे । इसीलिए  कल यहां के प्रमुख विद्वान  भिक्षुओं की  एक  सभा  बुलायी  गयी  हैं  जिसे  आप  द्वारा  संबोधित किया  जायगा  और  बताया  जायगा कि  आप  बौद्धधर्म  क्यों  नहीं  सिखा रहे  हैं । यह सुन  कर मैं प्रसन्न हुआ , क्योंकि  मैं भी यही   चाहता  था  । बरमा  के  लोगों  में मेरे  प्रति  जो  गलत  धारणा  उत्पन्न हुई हैं, वह दूर कर दी जाय ।

     जब मैंने उन्हें कहा कि भगवान की मूल वाणी में उनकी शिक्षा  को     धर्म     ही कहा गया हैं, कहीं    बौद्धधर्म    नहीं । धर्म  धारण   करने  वालों को धम्मिक  
 (धार्मिक )  , धम्मट्ठ (धर्म - स्थित ) , धम्मचारी , धम्मजीवी, धम्मत्र्त्रु ( धर्मज्ञ), धम्मधर, धम्मवादी आदि  ही कहा गया हैं ।
भगवान की शिक्षा को  बौद्धधर्म  और  उनके  अनुयायियों  को  बौद्ध  कहना बाद  में  जोड़ा गया  और  हमने  नासमझी से  इसे  स्वीकार कर लिया । उससे  भगवान  बुद्ध  की  महान  शिक्षा हल्की  बना  दी  गयी  ।भगवान बुद्ध  की  शिक्षा सचमुच  महान  हैं , क्योंकि   धर्म   शब्द  सार्वजनीन  हैं, सार्वदेशिक हैं , सार्वकालिक हैं । परंतु जब उसे बौद्धधर्म कहा गया तब वह संप्रदायवादी हो गया । वह संकुचित होकर केवल एक संप्रदाय तक  सीमित रह गया । हमने नितांत  नासमझी से ही इस 
अप्पमाणो  धम्मो को पमाणवन्तो बना दिया । असीम को ससीम कर दिया । महान को लघु बना दिया ।  

        मेरे प्रवचन के बाद भिक्षुओं ने कहा कि हमें  दो  दिन  का  समय  दिजिये । हम देखेंगे कि क्या सचमुच   बुद्धवाणी   में. बौद्धधर्म  और  बौद्ध   शब्द   हैं कि  नहीं  ।  सभा  कि  अध्यक्षता मेरा  धर्ममित्र  और धर्मभाई मांडले  यूनिवर्सिटी  का  अवकाशप्राप्त  वाइसचांसलर डॉ. ऊ को  ले  कर  रहा  था । उसने  एक नया प्रस्ताव लाते हुए कहा कि  बरमी  भाषा  में  धम्म  के  लिए  तया  (तरा ) शब्द  हैं । उसमें कोई  परिवर्तन  नहीं  किया  गया । आज भी  हम कहते  हैं ---चलो ,  अमुक भिक्षु का प्रवचन हैं, चल कर उससे तया सुनें । अथवा चलो तया ( साधना ) में बैठें । 
परंतु कभी नहीं कहते कि बौद्धतया  चलें  या  बौद्धतया की साधना में बैठें । सचमुच बुद्ध ने बौद्ध शब्द का प्रयोग ही नहीं किया । यह   अंग्रेजी  राज्य  में हुआ ,  जब  धर्म  बौद्धिज्म  और धर्म  धारण  करने  वालों  को  बुद्धिस्ट  कहने  लगे  ।   इस व्याख्या  से  सभी  भिक्षु  बहुत प्रसन्न  हुए ।  सब  के  मन का  संदेह  दूर  हुआ । बर्मी सरकार  ने  ' महासद्धम्मजोतिद्धज ' अलंकरण से मुझे विभूषित किया ।

       मेरे  विरुद्ध  ऐसा ही झूठा आरोप श्रीलंका  के .विद्वान  भिक्षुओं ने  लगाया  था कि  मैं बौद्धधर्म  न  सिखाकर बुद्ध की शिक्षा  को  बिगाड़ रहा हूं । सौभाग्य से  न्यूयॉर्क  में  इसी विषय  पर  मेरे  दो  प्रवचन हुए, 
जिन्हें सुन कर  अमेरिका में  श्रीलंका  का  राजदूत  बहुत  प्रभावित हुआ और उसे अपने  विद्वान  भिक्षुओं  की गलती  स्पष्टतया  समझ में आयी । उसने अपने देश के राष्ट्रपति श्री महेन्द्र राजपक्षे को सुचना दी कि वे मुझे राज्य  - अतिथि के रूप में बुलायें और भिक्षुओं की शंकाओं का समाधान करायें ।

      वहां भी यही हुआ । मेरी व्याख्या से भिक्षुगण भावविभोर हो उठे और उनको यह भूल समझ में आयी कि  भगवान   के द्वारा सिखाये गये धर्म को बौद्धधर्म  कह कर हमने उसे एक सांप्रदाय में बांध दिया । जबकि भगवान  जातिवाद  के  ही. नहीं, संप्रदायवाद  के  भी  बड़े विरोधी. थे । मेरे वहां तीन प्रवचन हुए जिसमें  वास्तविकता  एकदम स्पष्ट हो गयी । वहां के राष्ट्राध्यक्ष श्री महेन्द्र राजपक्षे  ने  मुझे जिनसासनसोभन  पटिपत्तिधज नामक अलंकरण से सम्मानित किया और वहां के  प्रमुख भिक्षु संघ ने परियत्ति  विसारद  की  उपाधि से सम्मानित किया । 

     महत्व इन उपाधियों का नहीं, बल्कि इस बात हैं कि वहां के शीर्षस्थ विद्वानों ने भी यह सत्य स्वीकार किया कि बुद्ध ने धर्म सिखाया , न  कि  बौद्धिधर्म । लोगों को धार्मिक बनाया , न  कि बौद्ध ।

        भारत लौटने पर मैंने अपने शोधकर्ता शिष्यों को यह देखने के लिए लगाया कि बुद्धवाणी में कहीं बौद्ध शब्द तो नहीं है । उन्होंने अनुसंधान करके समग्र पालि साहित्य में, यानी, केवल तिपिटक में ही नहीं, बल्कि उनकी अर्थकथाएं , टीकाएं और अनुटीकाएं भी सीडी - रोम में निवेषित कर रखी थीं । उनका अनुसंधान किया गया तो पाया कि सारे पालि  वाड्मय में धम्म से जुड़े हुए १७,०७३ शब्द हैं परंतु किसी एक के साथ भी बौद्ध शब्द नहीं जुड़ा है ।

     स्पष्ट है भगवान बुद्ध ने धर्म सिखाया  न  कि  बौद्धधर्म ; लोगों को  धार्मिक  बनाया  न  कि  बौद्ध । हमने धर्म शब्द के साथ बौद्ध शब्द जोड़ कर कितनी बड़ी भूल की । अब उसे सुधारें । 

     हमारे लिए बुद्ध, धम्म और संघ ही त्रिरत्न हैं, न  कि बौद्धधर्म और  बौद्धसंघ । हम बुद्ध, धम्म और संघ की शरण जाते हैं, न कि बौद्धधर्म और बौद्ध संघ की । हम स्पष्ट ही कहते हैं -- नत्थि मे सरणं अत्र्त्रं, धम्मो मे सरणं वरं , यानी , शरण धर्म की हैं, न कि बौद्धधर्म की । इसके बाद जब प्रज्ञा  का  काम  सिखाया जाता है, तब उसमें शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को साक्षीभाव से देखना सिखाया जाता है । ये संवेदनाए सब को होती हैं । किसी एक संप्रदाय के लोगों तक सीमित नहीं होतीं । अतः शील , समाधि, प्रज्ञा के धर्म पर किसी एक संप्रदाय की मनोपोली नहीं हेती ।

   भगवान बुद्ध ने जो सार्वजनीन धर्म सिखाया उसे अरियो अट् ठडि्गको  मग्गो कहा  यानी शील, समाधि, और प्रज्ञा का आठ  अंग वाला मार्ग जो किसी भी  अनार्य को  आर्य बना दे । अधार्मिक को धार्मिक बना दे   ।


                 एस एन गोयन्का

  मंगल हो  भलं हो कल्याण हो

🌷 विपश्यना साधना परिचय 🌷


विपश्यना (Vipassana) भारत की एक अत्यंत पुरातन ध्यान-विधि है। 

इसे आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला था। 

विपश्यना का अभिप्राय है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने नैसर्गिक श्वास के निरीक्षण से आरंभ करके अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होने वाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्त-विशोधन और सद्गुण-वर्धन का यह अभ्यास (Dhamma), साधक को किसी सांप्रदायिक आलंबन से बॅंधने नहीं देता। 

इसीलिए यह साधना सर्वग्राह्य है, बिना किसी भेदभाव के सबके लिए समानरूप से कल्याणकारिणी है।

1) विपश्यना क्या नहीं है:

विपश्यना अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।यह साधना बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।यह छुटी मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदानप्रदान के लिए नहीं है।यह रोजमर्रा के जीवन के ताणतणाव से पलायन की साधना नहीं है।

2)  विपश्यना क्या है:

यह दुक्खमुक्ति की साधना है।

यह मनको निर्मल करने की ऐसी विधि है जिससे साधक जीवन के चढाव-उतारों का सामना शांतपूर्ण एवं संतुलित रहकर कर सकता है। यह जीवन जीने की कला है जिससे की साधक एक स्वस्थ समाज के निर्माण में मददगार होता है।

विपश्यना साधना का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य विकारों से संपूर्ण मुक्ति है। उसका उद्देश्य केवल शारीरिक व्याधियों का निर्मूलन नही है। लेकिन चित्तशुद्धि के कारण कई सायकोसोमॅटीक बीमारिया दूर होती है। 

वस्तुत: विपश्यना दुक्ख के तीन मूल कारणों को दूर करती है—राग, द्वेष एवं अविद्या। 

यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का साक्षात्कार कर सकता है।

चाहे विपश्यना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई सांप्रदायिक तत्त्व नहीं है और किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है। 

विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं, जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नहीं आती। 

हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। 

चूंकि रोग सार्वजनीन है, अत: इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए।





Books are always best Friends

World Books Day, विश्व पुस्तक दिवस,  R. K. Narayan
Dr. Anupama Chaturvedi एक अच्छी आयुर्वेद विशेषज्ञ की साथ ही अच्छी लेखिका भी है. इन्हें भ्रमण का विशेष शौक है साथ ही उसका बड़ा ही सजीव वर्णन इनकी खासियत है. किसी भी विषय पर इनका धारा प्रवाह लेखन पूरा लेख पढने को मजबूर कर देता है.

"रतन,घर चल। मदन छत पर चल।" 

बिना मात्रा के इन छोटे छोटे वाक्यों से पुस्तक पढ़ना शुरू किया था। उम्र होगी तीन साल, महीने भर में बारहखड़ी याद करके मात्रा वाले वाक्यों को पढ़ने के साथ ही, प्राथमिक कक्षाओं में आने वाली हिन्दी की पुस्तक को पूरा पढ़ लिया। मुझसे बड़ा भाई तीसरी कक्षा में, उसकी हिन्दी की पुस्तक में पहला पाठ कविता थी, जिसे पढ़ने के बाद, ढपोर शंख, झीतरिया,नेवला और मूर्ख महिला जैसी सचित्र कहानियों को कितनी ही बार पढ़ा। 

पुस्तकें ही खिलौने जैसी लगती, जिनमें एकांकी,नाटक , कहानियों के पात्रों के साथ काल्पनिक खेल चलता रहता। थोड़े बड़े होने पर चंपक,नन्दन,पराग, बाल भारती, चंदामामा जैसी पुस्तकों से परिचय हुआ, पाठ्यक्रम की पुस्तकें अरुचिकर लगने लगती,जो मजा इन्हें अपनी सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में छिपा कर पढने मे आता,पकड़े जाने का डर भी उस मजे के आगे कुछ नहीं।
किताबों की दुनिया से सीखे सबक, अनुभवों के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसकी रुचि के अनुसार पुस्तक पढ़ने में जो आनंद आता है,वह आनंद अवर्णनीय है। 


विश्व में लाखों पुस्तकालय होंगें,करोड़ों पुस्तकें होंगी,हम अपने जीवन में गिनती की पुस्तकें ही पढ़ पाते हैं,और उनमें से अल्प ही स्मरण रख पाते हैं। पुस्तकें किस क्षेत्र से संबंधित है, किस विषय की है ,पढ़ने वाले का व्यक्तित्व प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। मेरे सिरहाने शरदचंद्र, प्रेमचंद, आर. के. नारायण, शिवानी से लेकर निर्मला भुराड़िया, प्रभा खेतान,मैत्रेयी पुष्पा, कृष्ण सोबती, चित्रा मुद्गल ,उषा प्रियम्वदा आदि का साहित्य मुझे उनके अनुभवों की आंच में पकाया है तो आनंद के सिरहाने "रिच डैड, पुअर डैड","चिकन सूप बार द सोल" "द मोंक हू सेल हिज फरारी" सेवन हेबिट्स आफ् हाइली इफेक्टिव पीपल" जैसी प्रेरक किताबें या "किंडल "पर मेरे लिए नीरस विषय प्रोद्योगिकी और टेक्नोलॉजी से संबंधित पुस्तकों का ढेर डाउनलोड किया हुआ मिलेगा। तकनीक ने एक छोटा सा पुस्तकालय आठ से दस इंच की स्क्रीन में समाहित कर दिया। लेकिन मै उस स्क्रीन में किताबों के पन्ने बदलने की आवाज,उन पन्नों में बसी खुशबू ,पन्नों पर बिखरे अक्षरों,शब्दों को महसूस नहीं कर पाती,जो शब्द हाथ में पकड़ी किताब में प्रवाह में बहते दिखाई देते हैं, कभी मुस्कराते,कभी उदास ,कभी जोर से खिलाखिलाते।


 "विश्व पुस्तक दिवस " पर उन सभी महान् लेखकों ,रचियताओं को श्रद्धा से नमन, जिन्होंने कितने धैर्य ,विद्वता से एक नहीं अनेक ग्रन्थो, महाकाव्यों,कथाओं, उपन्यासों ,नाटकों ,निबंधों की रचना कर समाज के लिए पुस्तक रुप में प्रस्तुत किया। पुस्तकों के प्रति आजकल रुचि कम हो रही है, तकनीकी क्रांति ने मोबाइल , इंटरनेट जैसी सुविधाओं के उपयोग से विशिष्ट विषय से संबंधित जानकारी त्वरित उपलब्ध कराई है, फिर भी हमें आने वाली पीढ़ी के लिए पुस्तकों के प्रति लगाव उत्पन्न करना होगा 
,जिससे सांस्कृतिक विरासत को वे भी भविष्य में हस्तांतरित कर सके। 

"विश्व पुस्तक दिवस "की सभी मित्रों को शुभकामनाएं।



साभार 

Yatra ~ Puri

Dr. Anupama Chaturvedi  Puri yatra

Dr. Anupama Chaturvedi एक अच्छी आयुर्वेद विशेषज्ञ की साथ ही अच्छी लेखिका भी है. इन्हें भ्रमण का विशेष शौक है साथ ही उसका बड़ा ही सजीव वर्णन इनकी खासियत है.

चैत्र नवरात्र के साथ ही भारतीय नववर्ष प्रारंभ हो चुका है। अभी उड़ीसा की संस्कृति को थोड़ा बहुत देखकर आई हूं। भारत की विविधताओं के रंगों में एक बहुत उजला रंग,उड़ीसा का। छोटे बेटे अनुज के दसवीं बोर्ड की परीक्षाएं 29 मार्च को समाप्त हुई,दो अप्रेल को कोटा से जनशताब्दी से दिल्ली, दिल्ली से शाम की फ्लाइट से भुवनेश्वर पहुंचे।

भुवनेश्वर से लगभग डेढ घण्टे की दूरी पर पुरी, जगन्नाथ की हमारे चार धामों में से एक।  पुरी पहुंचते पहुंचते रात दस बज गए , सडक के एक ओर बंगाल की खाडी का विशाल समुद्र तीव्रता से थपेडे देता शोर करता हुआ किसी जिद्दी बच्चे की तरह ,किसी की भी नही सुननेवाला हो,जैसा लगा,रात्रि की शांति मे उसकी लहरों का शोर बार बार ध्यान आकर्षित करता। समुद्र भी आकर्षित होता ही है...चन्द्रमा की कलाओं से..।

पुरी का सूर्योदय का सौन्दर्य अद्भुत है,दूसरे दिन तड़के ही पांच बजे समुद्र तट पर सूर्योदय की प्रतीक्षा में बैठकर सागर की लहरों के बहाव को देखते रहे.. ,"यहां सूरज कब तक निकलेगा"किसी चायवाले से पूछा तो उसके उत्तर से निराश हो ,वापस होटल। "आज तो मेघ आ गया,आज सोरज कैसा निकलेगा".

दिन में भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने से पहले हमारे पूर्वजो की वंशावली संभालकर रखने वाले पंडित से मिलने पर पता चला कि उनकी बही खाते में उड़िया भाषा में हस्तलिपि में हमारे पूर्वजों के नाम पते बिल्कुल सही निकले। इतिहास में प्रमाणित जानकारी के लिए लिखित प्रमाणों का एक उदाहरण। कभी किसी काल में पूर्वजों द्वारा यहां की गयी यात्रा का उल्लेख संभाल कर रखना, "डाक्यूमेंट मैनेजमेंट" .... । 

पंडित जी के साथ भगवान जगन्नाथ के दर्शनों के बाद , यहां का महाप्रसाद खाने का जो आनंद मिला ... मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तनों में बनाये बात,दाल,साग, मिष्ठान, मालपुआ सभी गर्म और स्वादिष्ट। घर पर कभी भी कद्दू की सब्जी की तरफ न देखने वाला अनुज, केले के पत्ते पर जिस रुचि से मालपुआ खाया उसी रुचि से मिट्टी की छोटी हांडी से परोसी कद्दू की गर्म सब्जी को खाने लगा।.जगन्नाथ का भात जगत पसारे हाथ" 

शाम को होटल के सामने ही फैले विस्तृत खूबसूरत समुद्र तट पर थोड़ी देर बैठने के बाद , हमारी ओर आती लहरों को देख,उन मचलती,बिखरती लहरों के निमन्त्रण की अवग्या कैसे की जाती? उन लहरों के साथ हमारा मन भी मचल गया और तेजी से पास आती लहरों के पानी के साथ हमने तन के साथ मन को भी एक अलग अनुभव से भिगो दिया।

दूसरे दिन सुबह चिल्का भ्रमण पर निकले ,पूरा दिन नौका पर ,पानी में।शाम कोवापस पुरी। चिल्का के रास्ते में छोटे छोटे गाँव,सडक के दोनो ओर नारियल के तरु के साथ बहुत से स्थानीय पादपो के घने झुरमुटों की सुन्दरता। छोटे छोटे पोखर जिनमे मछली पालन, कमल और मखाने की खेती..। चिल्का में प्रवासी पक्षियों की संख्या अप्रेल मे कुछ कम हो जाती है,पर जिसे देखने के लिए तनु,अनुज उत्साहित थे,वह दिख ही गयी,डाल्फिन। हमारी नाव के आस पास पानी की सतह पर आती और बहुत चपलता से झलक दिखा कर वापस पानी में, मोबाइल के कैमरे नही पकड पाए।

कोणार्क के सूर्य मन्दिर की स्थापत्य शैली अनूठी होने से विश्व संरक्षित स्मारको में इसकी गणना की गई है,अगले दिन कोणार्क पहुंचने से पूर्व चन्द्रभागा बीच पर ऊंची लहरो को देखना रोमांच पैदा करने वाला अनुभव। तेरहवीं सदी के अन्दर बिना किसी यांत्रिकी तकनीक की सहायता से तत्कालीन समय में इतने श्रेष्ठ निर्माण किया जाना,आश्चर्य में डाल देता है। पिछले वर्ष तमिलनाडु में देखे तंजोर, महाबलिपुरम, त्रिची, मदुरै के विशाल मन्दिरों की स्मृति पुनः स्मरण हो आई, कहीं मन में कसक भी रही ,इतिहास में इन स्थानों को वह स्थान नहीं मिला, जितना ताजमहल या मध्यकालीन स्मारको को मिला। धौलागिरी पर बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियां हर आने वाले पर्यटक को सम्मोहित करती है।

भुवनेश्वर में विशाल मन्दिर लिंगराज मन्दिर में दर्शन के साथ वहा की स्थापत्य शैली कोणार्क के समान उन्नत है। नन्दनकानन के विशाल जैविक विविधताओं से भरे उद्यान में भयानक अजगर,सर्प ,राइनो,शेर,सफेद बाघ ,जिराफ को सफारी में देखना रोमांचक था।

ओला,उबर,ओयो,जोमेटो,स्वीगी जैसी सुविधाएं यात्राओ को सहज सुगम बना देती है, मोबाइल से मात्र ओर्डर किया,सारी सुविधाएं उपलब्ध,चाहे स्थानीय साइट सीन हो या शाकाहारी जैन भोजन ..। तनु( भान्जी) के द्वारा स्थान स्थान पर इन सुविधाओं को लेने से यात्रा का आंनद स्मरणीय बन गया।


साभार 
डॉ. अनुपमा चतुर्वेदी



विशेष भाग्य रेखा बनाती है जीवन को सफल

विशेष भाग्य रेखा


हाथ में अंगुलियों के पास, हृदय रेखा के ऊपर, वृहस्पति, शनि व सूर्य के नीचे एक रेखा देखी जाती है। कई व्यक्ति इस रेखा को शुक्र मुद्रिका समझते हैं, परन्तु यह शुक्र मुद्रिका न होकर विशेष भाग्य रेखा होती है। यह रेखा सुख, प्रसिद्धि एवं समृद्धि का लक्षण है। यह हाथ का मुल्य बढ़ाने वाली और छोटी होने पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। वृहस्पति से सूर्य के नीचे तक इसकी स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है और इसी स्थिति में यह सर्वोत्तम मानी जाती है।

शुक्र मुद्रिका शनि की अंगुली के पास से आरम्भ होकर सूर्य व बुध की अंगुली के बीच जाती है। परन्तु विशेष भाग्य रेखा मुड़ कर सूर्य के अंगुली पर नहीं जाती। कई बार टूटी शुक्र मुद्रिका का एक भाग भी ऐसा ही लगता है अत: सावधानी से इसका निर्णय कर लेना चाहिए। इसकी उपस्थिति में जंघा पर तिल होता है यही इस लक्षण की पुष्टि है।

सूर्य, शनि व वृहस्पति पर विशेष भाग्य रेखा होने पर व्यक्ति जीवन में विशेषता रखते हैं और व्यक्तिगत गुणों के आधार पर ही उन्‍नति करते हैं। खोज करने वाले, लेखक, राजनीतिज्ञ व राजदूत आदि के हाथों में ऐसी रेखाएं देखी जाती हैं। यें रेखाएं उच्च पदस्थ सरकारी कर्मचारीयों, विशिष्‍ट पदों पर कार्य करने वाले, लिमिटेड कम्पनियों के प्रशासकों, सेना के अधिकारी व उद्योगपतियों के हाथों में पाई जाती हैं। इसके साथ गोलकार जीवन रेखा, एक से अधिक भाग्य रेखाएं व हाथ सुन्दर भी हो तो क्या ही कहना? वस्तुत: यह रेखा अन्य सभी रेखाओं व लक्षणों का मुल्य बढ़ा कर कई गुणा कर देती है।

 विशेष भाग्य रेखा होने पर व्यक्ति की नौकरी का स्तर अपेक्षाकृत ऊचा होता है, ये अपने कार्य में स्वतंत्र होते हैं। अक्सर देखा जाता है कि इनके ऊपर कोई दूसरा अफसर या उच्च अधिकारी नहीं होता, यदि होता भी है तो वह इनके लिए रुकावट नहीं बनता, इनका व्यक्तित्व स्वतंत्र होता है। वृहस्पति पर जीवन रेखा से रेखाएं जाने और भाग्य रेखाएं अनेक होने पर ऐसे व्यक्तियों की प्रत्येक इच्छा पूर्ण होती है व्यापारियों के हाथों में ऐसा होने पर बड़े व्यापारी होते हैं। छोटा या प्रशासक हाथ होने पर ऐसे व्यक्ति विभाग के प्रमुख अधिकारी जैसे डायरेक्टर, चेयरमैन, स्वामी या प्रबन्धक होते है। बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकार सम्पन्न व्यक्तियों, नेताओं व पुलिस अफसरों के हाथों में भी ऐसी रेखाएं होती हैं।

इस रेखा की पुष्टि का चिन्ह जंघा पर तिल होता है। एक हाथ में यह रेखा होने पर उस से दूसरी जंघा पर तिल पाया जाता है।

बुध की अंगुली का नाखून छोटा व चौकोर हो तो विशेष भाग्य रेखा वाले व्यक्ति राजनैतिक जीवन में ख्याति प्राप्त करते हैं, या तो ये चुनाव लड़ते हैं या योग्यता के आधार पर मनोनीत किये जाते हैं। निर्विरोध चुने जाने वाले व्यक्तियों के हाथों में भी ऐसी ही रेखाएं होती हैं। ऐसे व्यक्ति किसी संस्था के प्रधान या मंत्री भी होते हैं।

हाथ निकृष्‍ट होने पर विशेष भाग्य रेखा हो तो अपने ही स्तर के व्यक्तियों में सम्मान प्राप्त करते हैं और उनका मार्ग-दर्शन करते हैं परन्तु हाथ उत्तम होने पर ऐसे व्यक्ति सेना नायक, शासन-शक्ति सम्पन्न, शोधकर्ता व असाधारण मानसिक दक्षता रखने वाले होते हैं। कलाकार, वैद्य, डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, इन्जीनियर, सलाहकार, एडीटर इत्यादि बोद्धिक गुण सम्पन्न व्यक्तियों के हाथों में ये रेखाएं होती हैं। ये अपने कार्य को पूरे उत्तरदायित्व के साथ पूर्ण करते हैं और जिस कुल में पैदा होते हैं उसका नाम ऊंचा करते हैं।

विशेष भाग्य रेखा होने पर चन्द्रमा से भाग्य रेखा निकल कर शनि पर जाती हो तो चुनाव लड़ते हैं। ऐसे व्यक्तियों का वंशानुगत धन्धा व्यापार होता है। भाग्य रेखा यदि हृदय रेखा पर रुकती हो तो जन सम्पर्क का लक्षण है, जिसके कारण व्यक्ति को लोकप्रियता व प्रसिद्धि प्राप्त होती है, धन का लाभ नहीं होता।
ऐसी भाग्य रेखा विशेष लम्बी होने पर व्यक्ति की रुचि साहित्य सृजन की ओर होती है। उच्च कोटि के लेखक व पत्रकारों के हाथों में भी यह रेखा पाई जाती है। मस्तिष्क रेखा दोहरी, द्विभाजित या शाखान्वित होने पर ऐसे व्यक्ति साहित्य सृजन करते हैं। शुक्र या चन्द्रमा उन्‍नत होने पर श्रृंगार-साहित्य, परन्तु बुध की अंगुली छोटी व तिरछी होने पर गन्दे साहित्य का निर्माण करते हैं। मस्तिष्क रेखा चन्द्रमा पर या उसकी ओर जाती हो तो भी व्यक्ति की रुचि श्रृंगार-साहित्य सृजन की ओर होती है। हाथ लम्बा व अंगुलियां लम्बी होने पर उत्तम, सैद्धान्तिक व लोकोपयोगी साहित्य का सृजन होता है। वृहस्पति की अंगुली बड़ी, हाथ कोमल व सभी ग्रह उन्‍नत होने पर भी ये सुन्दर व लोकोपयोगी साहित्य का निर्माण करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का साहित्य निश्चित रूप से ही समाज में सम्मान प्राप्त करता है। हाथ में दोष होने पर उत्तम और मध्यम दोनों प्रकार के साहित्य सृजन करते हैं।

बुध की अंगुली तिरछी, वृहस्पति और बुध की अंगुलियों के नाखून छोटे व चौकोर होने पर व्यवहारिक विशेषता पाई जाती है। ऐसे व्यक्ति ज्योतिषी, हस्तरेखाविद्, वक्ता व उत्तम कोटि के आलोचक या पारखी होते हैं। बुध और शनि का नाखून छोटा होने पर धार्मिक, आत्मज्ञान या कृषि सम्बन्धी साहित्य का सृजन करते हैं। शनि श्रेष्‍ठ व शनि की अंगुली लम्बी होने की दशा में व्यक्ति धातु सम्बंधी या आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण करते देखे जाते हैं। कुछ भी हो कोई न कोई बौद्धिक विशेषता रखते हैं। रेखाओं में दोष होने पर दोष के अनुसार इनके स्वभाव में कोई न कोई लक्षण पाया जाता है तो भी समय आने पर अपनी विशेषता प्रकट करते हैं। ये अपने कुटुम्ब में अपने समय तक सब से अधिक शिक्षा लेते हैं यद्यपि शिक्षा से इस रेखा का कोई सम्बंध नहीं है। हाथ के लक्षण उत्तम होने पर विशेष भाग्य रेखा हो तो व्यक्ति चाहे अशिक्षित ही हो धनी-मानी व प्रभावशाली होते हैं।


साभार

हृदय रेखा से जानिये प्रेम सम्बन्ध, स्वभाव व स्वास्थ्य
कब होगा आपका भाग्योदय ??
कबीर के दोहे
बस, ऐसे ही पूछ लिया !!!