कबीर के दोहे


Kabir (कबीर) ke dohe in hindi

कबीर

चाह गई, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह |जिनको कछु न चाहिए वो शाहन के शाह ||


दोहों का भारतीय जनमानस पर हमेशा बहुत ही प्रभाव रहा हैं क्यूंकि दोहे जीवन की जटिलताओं को सरलता से समझा देते हैं | दोहे कालजयी होते हैं, इनके अर्थ समय की कसौटी पर सटीक होते हैं |




-50-
कबीर नाव जर्जरी, कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए, बूड़े तिनि सर भार ॥

(कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं)
-49-
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥

(यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?)
-48-
तेरा संगी कोई नहीं, सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥

(तेरा साथी कोई भी नहीं है. सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा – मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता. अर्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है)

-47-
हिरदा भीतर आरसी, मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए, जे मन की दुविधा जाई ॥


(ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु – वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता जब मन का संशय मिट जाए)

-46-
मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा, मेरी  गल की पास ॥

(ममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो – मेरा-मेरा है कि रट मत लगाओ, ये विनाश के मूल हैं – जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है)
-45-
मन जाणे सब बात, जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात, कर दीपक कूंवै पड़े ॥


(मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?)
-44-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो घर देखा आपणा, मुझसे बुराना कोय॥


(मैं इस संसार में बुरे व्यक्ति की खोज करने चला था लेकिन जब अपने मन में झाँक कर देखा तो मुझ से बुरा कोई न मिला अर्थात हम दूसरे की बुराई पर नजर रखते हैं पर अपने आप को नहीं देखते)
-43-
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह ।
झूठे को साँचा मिले, तब ही टूटे नेह ॥

(जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है. पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है)
-42-
कबीर चन्दन के निडै, नींव भी चन्दन होइ ।
बूडा बंस बड़ाइता, यों जिनी बूड़े कोइ ॥

(यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है . लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बड़प्पन के कारण डूब जाता है. संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – अपने गर्व में ही नहीं रहना चाहिए)
-41-
करता केरे गुन बहुत, औगुन कोई नाहिं ।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥

(प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है.जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं)
-40-
कबीर सो धन संचिए, जो आगे कूं होइ ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ  ॥

(कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे. सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा)

-39-
मूरख संग न कीजिए,लोहा जल न तिराई ।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥

(मूर्ख का साथ मत करो, मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता  डूब जाता है. संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है)

-38-
काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसि र निकसणहार ॥

(यह दुनिया तो काजल की कोठरी है, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी । धन्य है उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता है)


-37-
ऊंचे कुल क्या जनमिया, जे करनी ऊंच न होय ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निन्दै सोय ॥

(यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है तो भी सज्जन उसकी निंदा ही करेंगे)


-36-
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी ।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥


(मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया)


-35-
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ॥


(ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो .जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों)


-34-
कबीर संगति साध की, कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना, नीब न कहसी कोई ॥


(कबीर कहते हैं कि साधु  की संगति कभी निष्फल नहीं होती. चन्दन का वृक्ष यदि छोटा भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा. वह सुवासित ही रहेगा  और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा. आपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा)


-33-
काची काया मन अथिर, थिर थिर  काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर  निधड़क फिरै, त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥


(शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम  करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल (अर्थात मृत्यु )उस पर  हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है)


-32-
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥


(जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना)

-31-
तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥


(तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य  कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है. किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी. मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे)

-30-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहीं ॥


(जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ. जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु  मिले. जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ – तब अहम स्वत: नष्ट हो गया. ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया. प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता – प्रेम की संकरी – पतली गली में एक ही समा सकता है – अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है)

-29-
जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है, बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना,यह तथ कह्यौ गयानी ॥


(जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं !  आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है)


-28-
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया, लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की, लगी न एको छींट॥


(ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं. जिस मानव मन को प्रेम  ने नहीं छुआ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहेगा. प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है)

-27-
मन के हारे हार है ,मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीत ॥


(जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं. यदि मनुष्य मन से निराश हो गया तो  पराजय निष्चित है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है. ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?)

-26-
साधु भूखा भाव का ,धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहीं ॥


(साधु का मन भाव को जानता है व भाव का भूखा होता है,  वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी है वह साधु हो ही नहीं सकता )

-25-
पढ़े गुनै सीखै सुनै , मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं , ये ही दुःख का मूल ॥


(बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा  पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके)

-24-
दोस पराए देखि कर, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत॥


(मनुष्य पराये दोष देख कर बहुत खुश होता है, खुद के दोषों पर ध्यान नहीं देता जिनका न आदि और अंत का पता ही नहीं है)

-23-
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि॥


(वाणी एक अनमोल रत्न है, जो वाणी की कीमत जानता है वो शब्दों को हृदय में तोल कर बोलता है)

-22-
माला फेरत जुग गया, गया ना मनका फेर।
करका मनका छाडी के, मन का मनका फेर॥


(लोग सारे समय माला फेरते रहते हैं लेकिन उनका मन नहीँ बदलता है, माला यंत्रवत फिरती रहती है अगर मुक्ति चाहिए तो मन को ईश्वर में लगाओ)

-21-
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय॥


(कभी छोटे से छोटे व्यक्ति की भी निंदा नहीं करनी चाहिए, समय आने पर वोह भी बड़ी चोट दे सकता है, जैसे तिनका जब आँख में चला जाता है तो बहुत पीड़ा देता है)

-20-
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होई॥


(शरीर पर तो सब जोगी का स्वांग बना लेते हैं, लेकिन मन से कोई बिरला ही जोगी होता है | सब 
सिद्धिया  मन के जोगी होने से सहज ही प्राप्त हो जाती है)

-19-
हाड जले लकड़ी जले, जले जलावन हार।
कौतिकहारा भी जले, कासों करूं पुकार॥


(दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है. समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है. जब सब का अंत यही हो तो अपनी गुहार किससे करूं ? सभी एक ही नियति से बंधे हैं ! सभी का अंत एक है)

-18-
माया मुई न मन मुआ, मरी-मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर॥


(शरीर के कई-कई बार मरने पर भी ना तो माया मरती है न मन ही मरता है, आशा और तृष्णा लगी ही रहती है)

-17-
प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई॥


(प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता, चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा – यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा. त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता. प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं)

-16-
रात गंवाई सोय कर , दिवस गंवायो खाय।
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय॥


(रात सो कर बिता दी,  दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों की – कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया – इससे दुखद क्या हो सकता है)

-15-
मन ही मनोरथ छाडी दे, तेरा किया ना होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई॥


(मन तू ही अकारण इच्छा छोड़ दे, साड़ी इच्छाए पूरी नहीं हो सकती | अगर पानी में से ही घी निकल जाता तो किसीको भी रूखा भोजन नहीं करना पड़ता)

-14-
कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर॥


(कबीर कहते हैं कि सच्चा पीर – संत वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता है जो दूसरे के दुःख को नहीं जानते वे पीर या संत नहीं हो सकते)

-13-
कबीर हमारा कोई नहीं , हम काहू के नाहिं।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं, मिलिके बिछुरी जाहिं॥


(इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं)

-12-
सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥


(ये मन माया में इतना उलझा हुआ है कि कितना भी समझा लो सुलझता ही नहीं है, आज भी मन की अवस्था पहले दिन जैसी ही है)

-11-
देह धरे का दंड है ,सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से ,अज्ञानी भुगते रोय॥


(देह धारण करने का दंड - भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है)

-10-
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि ना लागे डार॥


(जैसे पेड़ से पत्ता टूट कर वापस डाली पर नहीं लगता वैसे ही मनुष्य का जन्म बार-बार नहीं मिलता, ये शरीर मुक्ति के लिए मिलता है इसलिए अच्छे कर्म करने चाहिए)

-9-
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥


(पुस्तक पढ़-पढ़ कर लोग वास्तविक ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते, ईश्वर से सच्च प्रेम कर के ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते है)

-8-
मन मैला तन ऊजला, बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौआ भला ,तन मन एकही रंग॥


(बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है, उससे  तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है)

-7-
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय॥


(सज्जन लोग सूप के समान होने चाहिए, जो सार-सार तो रख ले और निरर्थक की तरफ ध्यान न दे)

-6-
एकही बार परखिये, ना वा बारम्बार।
बालू तो हू किरकिरी, जो छानै सौ बार॥


(किसी व्यक्ति को बस ठीक से एक ही बार परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी. रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर न होगी, इसी प्रकार मूढ़ दुर्जन को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा)

-5-
हीरा परखै जौहरी , शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साध को , ताका मता अगाध॥


(हीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है . कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत अधिक गहन गंभीर है)

-4-
जाति न पूछों साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥


(अर्थात ज्ञानी से उसकी जात नहीँ पूछनी चाहिए, उसका तो ज्ञान ही अनमोल होता है | समय आने पर तलवार ही काम आती है म्यान का कोई मोल नहीं होता)

-3-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सुब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥


(मनुष्य को धीरज रखना चाहिए, सब कार्य समय आने पर ही होते हैं)

-2-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपणा, मुझसे बुरा ना कोय॥


(लोग दूसरों में बुराई तलाशते है लेकिन अपने आप को नहीं देखते)

-1-
पतिबरता मैली भली, गले कांच की पोत।
सब सखियाँ में यों दिपै,ज्यों सूरज की जोत॥


(पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है. चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो. फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है)


बस, ऐसे ही पूछ लिया !!!
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